चित्त की सत्यता से एकात्मकता
सत चित्त आनंद को एक ही फ्लो में कहा है सच्चिदानंद। यह निराकार है, साकार है ,जिस भाव जिस स्वरूप में मानना अनुभूत करना है ,देखना समझना है सब में है और सब कुछ इसी में है। यही जीव ,प्रकृति और ईश्वर की परम सत्ता है । जो भी जैसे जैसे इस आनंद के रास्ते गया सत के रास्ते गया चित्त को कहीं न कहीं स्थिर रख कर स्थित प्रज्ञ होकर गया। इसी लिए वह सत से चित्त को तरबतर कर उस आनंद को पा गया। प्राथमिकता तो अनंदन को पाने की ही होती है लेकिन जब माया की महिमा की दुनियां में आनंद के नाम बदलने लगते हैं, धन दौलत पद प्रतिष्ठा मेरे पास ये किसी के पास वो मेरे पास ये नहीं किसी के पास वो नहीं और फिर आनंद के रूप स्वरूप के भौतिक परिमाण और प्रमाणों के पीछे जिंदगी भाग दौड़ करने लगती है तब यह आनंद हाथों से फिसलने लगता है। चित्त की स्थिरता चित्त का सत की ओर गमन ही आनंद की ओर ले जाता है । चित्त पर चित्त की स्थिरता पर कोई लगाम कोई प्रभाव क्या प्रभाव होगा यह समझने में ही कठिनाई है । फिर आनंद की ओर यात्रा का रास्ता समझ आता है आने लगता है। चित्त तक क्या पहुँचता है चित्त किसीको क्या समझता है चित्त कैसे विशुद्ध होकर कैसे सत मय होकर आनंद को प्राप्त करे इसको साहित्यिक ,दार्शनिक, वैज्ञानिक से लेकर संत महात्माओं ऋषि मुनियों ने अपने अपने अनुभवों से बता रखा है। वह सब डॉक्यूमेंटेड भी किया रखा है । लेकिन यह बाहरी है ,अन्तरदर्शन की तह में अंतर्मन बल्कि और गहरे तर्क वितर्क करते अन्तरमस्तिष्क तक केवल और केवल अनुभूति से ही लब्ध हो सकने की स्थिति में होता है। और यही आनंद है चित्त की सत्यता से एकात्मकता होकर जो लब्धि है । सच्चिदानंद। तन्मे मनः शिव संकल्प ।